गुजरात में क्षत्रियों के विरोध के बाद भी रूपाला के पीछे क्यों खड़ी रही BJP? जानिए इनसाइड स्टोरी

अहमदाबाद: गुजरात की 25 सीटों पर सात मई को वोट डाले जाएंगे। इस बार के चुनावों में केंद्रीय मंत्री परशोत्तम रूपाला का क्षत्रिय समाज के लिए दिया गया बयान चर्चा में रहा। चुनावों में देखा जाता है कि नेता अक्सर जाति को काफी सचेत रहते हैं। रैलियों को स

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अहमदाबाद: गुजरात की 25 सीटों पर सात मई को वोट डाले जाएंगे। इस बार के चुनावों में केंद्रीय मंत्री परशोत्तम रूपाला का क्षत्रिय समाज के लिए दिया गया बयान चर्चा में रहा। चुनावों में देखा जाता है कि नेता अक्सर जाति को काफी सचेत रहते हैं। रैलियों को संबोधित करते वक्त भी वह इसका ध्यान रखते हैं। उनकी एक चूक परेशानी खड़ी कर देती। इसका अहसास परशोत्तम रूपाला ने भी किया होगा। रूपाला ने क्षत्रियों समाज के नाराज होने पर एक बार नहीं बल्कि तीन से चार माफी मांगी, लेकिन विरोध खत्म नहीं हुआ। आखिर में रूपाला ने यहां तक कहा कि उनके बयान के लिए पीएम मोदी से नाराजगी करने की जरूरत नहीं है। लोकसभा चुनावों में नामांकन से पहले और बाद तक रूपाला का मुद्दा छाया रहा, लेकिन पार्टी एक इंच पीछे नहीं हटी।

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गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के साथ परशोत्तम रूपाला।




गाेधरा के बाद नहीं हुआ टकराव
गुजरात में गोधरा दंगों के बाद इस तरह के मामले कम ही सामने आए हैं। जब जातियों के बीच टकराव दिखा हो। नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए तमाम जातियां धार्मिक स्तर आपस में जुड़ी रही हैं। पीएम मोदी के 2014 में दिल्ली जाने और प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्य में समुदायों के बीच सत्ता से अधिकतम लाभ उठाने के लिए संगठित होना शुरू हुआ था। इसके बाद ही पाटीदार आरक्षण आंदोलन, दलित आंदोलन और 2016-17 में ठाकोरों का शक्ति प्रदर्शन में इसकी झलक सामने आई थी। इन आंदोलनों का चेहरा रहे तीन में से दो (हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर) के बीजेपी में शामिल होने के बाद ये आंदोलन नियंत्रण में आ गए। पटेल शक्तिशाली पाटीदार समुदाय से हैं, जो 1980 के बाद से बीजेपी की सफलता का आधार रहा है। गुजरात में बीजेपी का उदय काफी हद तक पटेलों के कारण है, जिन्होंने सोशल-इंजीनियरिंग फॉर्मूले KHAM (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) के प्रतिशोध में बीजेपी का पूरे दिल से समर्थन किया था। )। यह थ्योरी पूर्व सीएम माधव सिंह सोलंकी के दिमाग की उपज थी।


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राजकोट से नामांकन दाखिल करने से पहले परशोत्तम रूपाला।




रूपाला का विरोध, मोदी का समर्थन
गुजरात में एकतरफा रहे लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 2014 और 2019 में सभी 26 सीटें जीतीं, लेकिन इस बार रूपाला की क्षत्रिय और राजपूतों पर की गई टिप्पणी के बाद मामला थोड़ा दिलचस्प हो गया है।क्षत्रियों ने बीजेपी के राज्यसभा सदस्य परशोत्तम रूपाला का सौराष्ट्र के राजकोट लोकसभा सीट से नामांकन रद्द करने की मांग उठाई। इस क्षेत्र में जाति विभाजन बहुत गहरा है, लेकिन प्रदर्शनकारियों ने रूपाला की उम्मीदवारी वापस लेने की अपनी मांग सीमित रखी, साथ ही उन्होंने बीजेपी के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त की। इस दौरान उन्होंने कहा कि मोदी से कोई समस्या नहीं है। दूसरी ओर रूपाला की माफी और पार्टी की माफी की अपील के बावजूद प्रदर्शनकारी अपनी मांग पर अड़े रहे। शुरुआत में चिंतित रूपाला नई दिल्ली गए और फिर आश्वस्त होकर लौटे। इसके बाद वह प्रचार में जुट गए। उन्होंने जैसे ही उन्होंने अपना नामांकन दाखिल किया। इसके बाद यह साफ हो गया कि बीजेपी क्षत्रिय समाज की मांग के आगे झुकने वाली नहीं है।


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परशोत्तम रूपाला को लेकर क्षत्रियों ने किया सम्मेलन।



नतीजा नहीं बदल सकते क्षत्रिय
अब सवाल यह खड़ा होता है कि बीजेपी ने एक समुदाय को नाराज करने की कीमत पर रूपाला का समर्थन क्यों किया? इसका जवाब है कि राजकोट में गैर क्षत्रिय मतों की संख्या। बीजेपी ने उन्होंने एकजुट करके अपने पक्ष में कर लिया। गुजरात की किसी भी लोकसभा सीट पर क्षत्रिय वोट प्रमुख नहीं है। वे बस बीजेपी का वोट शेयर कम कर सकते हैं, लेकिन वे उसकी हार का कारण नहीं बन सकते। गुजरात में क्षत्रिय समाज की स्थिति को देखते तो समुदाय में आर्थिक और सामाजिक तौर पर काफी असमानता है। गुजरात में बड़े क्षत्रिय समूह के भीतर खुद को राजपूत के रूप में पहचानने वाले प्रदर्शनकारियों को ठाकोर या कोली जैसी अन्य महत्वाकांक्षी क्षत्रिय जातियों का समर्थन मुश्किल से मिला। ठाकोर और कोली मिलकर गुजरात में सबसे बड़ा चुनावी समूह बनाते हैं।


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क्षत्रिय आंदोलन के चलते बढ़ानी पड़ी थी परशोत्तम रूपाला की सुरक्षा।



क्षत्रियों में एकजुटता की कमी
गुजरात क्षत्रिय सभा (जीकेएस) जैसे संगठनों द्वारा सभी उप-जातियों को एक छत के नीचे एकजुट करने के प्रयास सफल नहीं हुए हैं। जब जीकेएस ने आरक्षण लाभ के लिए एकीकरण की मांग की, तो उन्हें पूर्ववर्ती राजघरानों के विरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने अपनी उच्च स्थिति पर जोर देते हुए आरक्षण की बोली का कड़ा विरोध किया। बाद में ठाकोर और कोली को ओबीसी के रूप में शामिल किया गया। बीजेपी इसीलिए बेफिक्र है क्यों कि राज्य में क्षत्रिय संभावित चुनावी नतीजे को नहीं बदल सकते हैं। ये विरोध प्रदर्शन पार्टी की योजनाओं को उस तरह से बाधित नहीं कर सकते हैं जिस तरह से आरक्षण आंदोलन के बाद नाराज पाटीदारों ने किया था। जिसने 2017 के चुनाव में गुजरात की 182 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी को 100 से नीचे दो अंकों में 99 पर समेत दिया था।


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राजकोट में क्षत्रिय अस्मिता सम्मेलन के बाद भी रूपाला ने भरा नामांकन।



पाटीदार और क्षत्रिय में प्रतिस्पर्धा
क्षत्रिय आंदोलन के बाद गांवों और कस्बों में पाटीदार वोट रूपाला के पक्ष में एकजुट हो रहे हैं। इसके चलते गांवों में क्षत्रियों और पटेलों के बीच एक प्रतिस्पर्धा दिख रही है। क्षत्रिय विरोध ने दो पाटीदार वर्गों, लेउवा और कड़वा को भी एकजुट कर दिया है। रूपाला कड़वा पाटीदार हैं। उनकी टिप्पणी में राजपूतों को निशाना बनाया था। जिनसे ठाकोर और कोली बमुश्किल संबंधित थे। गुजरात के प्रख्यात समाजशास्त्री घनश्याम शाह कहते हैं कि क्षत्रिय प्रदर्शनकारी उसी तरह से असर पैदा नहीं कर सकते जैसे पाटीदारों ने 2015 के आरक्षण आंदोलन के दौरान किया था। बीजेपी ने क्षत्रियों के बीच असमानता का फायदा उठाने के लिए पूर्व राजघराने के प्रमुखों का इस्तेमाल किया।


क्या मिट जाएगा अतंर?
गुजरात में अभी तक पाटीदार समुदाय में आने वाले लेऊवा और कड़वा पटेल में अंतर रहा है। दोनों पटेल समुदाय पूरी तरह से साथ नहीं आए हैं। बीजेपी अब राज्य में दूसरे जातीय समीकरण को भी साधने की कोशिश में है। क्षत्रियों का गुस्सा अपने पाटीदार उम्मीदवार पर है। ऐसी संभावना है कि यह आंदोलन सौराष्ट्र में लेउवा और कड़वा पाटीदारों के बीच चुनावी अंतर को धुंधला कर सकता है। इतना ही नहीं बीजेपी इसके अलावा निचली जातियों के समर्थन को भी मजबूत कर सकती है। इससे उसे क्षत्रियों के खिलाफ और कड़ा रुख करने में मदद मिलेगी। शायद यही वजह है कि बीजेपी के लिए राजपूत विरोध पर ध्यान देने का कोई कारण नहीं है।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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